Monday, June 6, 2016
Tuesday, August 18, 2015
इसके बाद आए, जो अज़ाब आए ।
बाम-ए-मीना से माहताब उतरे
दस्त-ए-साक़ी में आफ़ताब आए ।
हर रग़-ए-खूँ में फ़िर चरागाँ हो,
सामने फ़िर वो बेनक़ाब आये |
उम्र के हर वरक़ पे दिल को नज़र
तेरी मेहर-ओ-वफ़ा के बाब आए ।
कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आए ।
ना गई तेरे ग़म की सरदारी
दिल में यूँ रोज़ इंक़िलाब आए ।
जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम,
जब भी हम खानामाँखराब आए ।
इस तरह अपनी ख़ामोशी गूँजी
ग़ोया हर सिम्त से जवाब आए ।
'फैज़' थी राह सर-बसर मंज़िल
हम जहाँ पहुँचे, कामयाब आए ।
- फैज़ अहमद 'फैज़'
Monday, November 12, 2007
Saturday, September 29, 2007
कहकर उसे बताना क्या |
अपने को अर्पण करना पर
औरों को अपनाना क्या |
गुण का ग्राहक बनना लेकिन
गाकर उसे सुनाना क्या |
मन के कल्पित भावों से
औरों को भ्रम में लाना क्या |
ले लेना सुगन्ध सुमनों की
तोड़ उन्हें मुरझाना क्या |
प्रेम हार पहनाना लेकिन
प्रेम-पाश फैलाना क्या |
त्याग अंक में पले प्रेम-शिशु
उनमें स्वार्थ बताना क्या |
देकर ह्रदय ह्रदय पाने की
आशा व्यर्थ लगाना क्या|
-डाक्टर हरिवंश राय बच्चन
सूरज ढलकर पच्छिम पहुँचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या-सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था,
दिन में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।
धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फैले,
सौ रजनी-सी वह रजनी थी
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।
चिड़ियाँ चहकीं, कलियाँ महकी,
पूरब से फिर सूरज निकला,
जैसे होती थी सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रातः कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई |
-हरिवंश राय बच्चन
Thursday, August 16, 2007
लाल किले पर चढ़कर किसने गाँव की हालत देखी है |
बिन बेले ही खाने-वाले रोटी से खिलवाड़ ना कर,
अँगारों पे हाथ जलाकर मैंने रोटी सेंकी है |
कश्ती बहक रही है तो क्यों हाय-तौबा करते हो,
बोझ समझकर कश्ती से पतवार तुम्ही ने फेंकी है |
कैक्टस के बँगले के भीतर जाने चीख रहा था कौन,
सुबह सड़क पर पड़ी हुई तुलसी लोगों ने देखी है |
जंगल की हत्या में शामिल कोई उसका अपना है,
लगी कुल्हाड़ी के भीतर एक काठ सभी ने देखी है |
दफ्तर जब भी जाऊँ बिटिया पाँव पकड़ कर रोती है,
मैंने इतनी बेबस उसकी आँख कभी ना देखी है |
जलकर और पिघलकर खुद जो घर को रोशन करती है,
ऐसी हर शम्मा में मैंने माँ की सूरत देखी है |
मेरे गाँव की माटी मुझसे बहुत मुहब्बत करती है
मैंने बस के पीछे आती धूल गाँव की देखी है |
-नीरज श्रीवास्तव
Thursday, August 2, 2007
मेरी महाभारत
युद्ध होगा
एक नहीं
प्रत्येक के
विरुद्ध होगा
फिर चढेगी
प्रत्यंचा गांडीव पर
फिर कहीँ कोई
सुयोधन क्रुद्ध होगा
ना जाने कैसे
समझाऊँ ह्रदय को
कैसे यह
बताऊं उसको, कि
गांधारी का प्रेम
आज भी मेरे लिए
अनिरुद्ध होगा
हाँ आज मैं
अर्जुन हूँ
अपनों से लडूँगा
ना आज कोई कृष्ण
ना भीष्म, द्रोण
ना ही युधिष्ठिर का चरित्र
अशुद्ध होगा
होगी तो बस
आज वो महाभारत
जिसमे तुम्हारी जीत
और अपनी हार देखकर
मेरा ह्रदय फिर एक बार
तृप्त होगा
मुग्ध होगा...
- गौरव चौहान
Tuesday, July 31, 2007
तुम अगर नही आई गीत गा न पाऊँगा
साँस साथ छोडेगी, सुर सजा न पाऊँगा
तान भावना की है शब्द-शब्द दर्पण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है |
तुम बिना हथेली की हर लकीर प्यासी है
तीर पार कान्हा से दूर राधिका-सी है
रात की उदासी को आँसुओ ने झेला है
कुछ गलत ना कर बैठें मन बहुत अकेला है
औषधि चली आओ चोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है |
तुम अलग हुई मुझसे साँस की ख़ताओं से
भूख की दलीलों से वक्त की सज़ाओं से
दूरियों को मालूम है दर्द कैसे सहना है
आँख लाख चाहे पर होंठ से न कहना है
कंचनी कसौटी को खोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है |
-डाक्टर कुमार विश्वास
{काव्य संग्रह "कोई दीवाना कहता है" (२००७) में प्रकाशित}
ना अपनी ख़ुशी आये ना अपनी ख़ुशी चले |
दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूं ही जब तक चली चले |
कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बदकिमार
जो चाल हम चले वो निहायत बुरी चले |
-"ज़ौक" इब्राहिम
{हयात = जीवन ; कज़ा = मौत ; राहे-फ़ना = नश्वर जीवन की राह ; बदकिमार = बेवकूफ़}
मेरी कुण्ठा
मेरी कुंठा
रेशम के कीड़ों सी
ताने-बाने बुनती,
तड़प-तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से
औ' वीणा से कहती-सुनती,
गर्भवती है
मेरी कुंठा – कुँवारी कुंती!
तो लोक-लाज-मर्यादा
भीतर रहने दूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मेरा यह व्यक्तित्व
सिमटने पर आमादा ।
-दुष्यंत कुमार
पाँवों से सिर तक जैसे एक जुनून
बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून
कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पाँव
जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव
टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस
पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस
कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़
जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़
गट्टों-सी जंघाएँ, निष्प्राण मलीन
कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण
छाती के नाम महज़ हड्डी दस-बीस
जिस पर गिन चुन कर बाल खड़े इक्कीस
पुट्ठे हों जैसे सूख गए अमरूद
चुकता करते-करते जीवन का सूद
बाँहें ढीली ढाली ज्यों टूटी डाल
अँगुलियाँ जैसे सूखी हुई पुआल
छोटी सी गरदन, रंग बेहद बदरंग
हर वक़्त पसीने की बदबू का संग
पिचकी अमियों से गाल, लटे से कान
आँखें जैसे तरकश के खुट्टल बान
माथे पर चिन्ताओं का एक समूह
भौंहों पर बैठी हरदम यम की रूह
तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल
विद्युत परिचालित मखनाती सी चाल
बैठे तो फिर घण्टों जाते हैं बीत
सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यन्त कुमार ।
-दुष्यंत कुमार
एक आर्शीवाद
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊँचाइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
-दुष्यंत कुमार
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है।
एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।
निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
-दुष्यंत कुमार
Monday, July 30, 2007
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सारी ऊर्जाएँ,
सारी क्षमताएँ खोने पर,
यानी कि
बहुत बहुत
बहुत बूढ़ा होने पर,
एक दिन चाहूँगा
कि तू मर जाए।
(इसलिए नहीं बताया कि तू डर जाए।)
हाँ उस दिन
अपने हाथों से
तेरा संस्कार करुंगा,
उसके ठीक एक महीने बाद
मैं मरूँगा।
उस दिन मैं
तुझ मरी हुई का
सौंदर्य देखूँगा,
तेरे स्थाई मौन से सुनूँगा।
क़रीब,
और क़रीब जाते हुए
पहले मस्तक
और अंतिम तौर पर
चरण चूमूँगा।
अपनी बुढ़िया की
झुर्रियों के साथ-साथ
उसकी एक-एक ख़ूबी गिनूँगा
उँगलियों से।
झुर्रियों से ज़्यादा
खूबियाँ होंगी
और फिर गिनते-गिनते
गिनते-गिनते
उँगलियाँ काँपने लगेंगी
अँगूठा थक जाएगा।
फिर मन-मन में गिनूँगा
पूरे महीने गिनता रहूँगा
बहुत कम सोउँगा,
और छिपकर नहीं
अपने बेटे-बेटी
पोते-पोतियों के सामने
आँसुओं से रोऊंगा।
एक महीना
हालाँकि ज़्यादा है
पर मरना चाहूँगा
एक महीने ही बाद,
और उस दौरान
ताज़ा करूँगा
तेरी एक-एक याद।
आस्तिक हो जाऊँगा
एक महीने के लिए
बस तेरा नाम जपूँगा
और ढोऊँगा
फालतू जीवन का साक्षात बोझ
हर पल तीसों रोज़।
इन तीस दिनों में
काग़ज़ नहीं छूउँगा
क़लम नहीं छूउँगा
अख़बार नहीं पढ़ूँगा
संगीत नहीं सुनूँगा
बस अपने भीतर
तुझी को गुंजाऊँगा
और तीसवीं रात के
गहन सन्नाटे में
खटाक से मर जाऊंगा।
-अशोक चक्रधर
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?
देव! मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।
-अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
इक लफ़्ज़-ए-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है,
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़, फैले तो ज़माना है |
ये किस का तसव्वुर है ? ये किस का फ़साना है ?
जो अश्क है आँखों में, तस्बीह का दाना है |
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है,
रोने को नहीं कोई, हँसने को ज़माना है |
वो और वफ़ा-दुश्मन, मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है, आँखों का बहाना है |
क्या हुस्न ने समझा है! क्या इश्क़ ने जाना है !
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है |
वो हुस्न-ओ-जमाल उनका, ये इश्क़-ओ-शबाब अपना,
जीने की तमन्ना है, मरने का ज़माना है |
या वो थे ख़फ़ा हम से, या हम थे ख़फ़ा उन से
कल उन का ज़माना था, आज अपना ज़माना है |
अश्कों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में,
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है |
आँखों में नमी सी है, चुप-चुप से वो बैठे हैं,
नाज़ुक सी निगाहों में, नाज़ुक सा फ़साना है |
है इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा ! हाँ !इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा,
आज एक सितमगर को हँस-हँस के रुलाना है |
ये इश्क़ नहीं आसाँ, बस इतना समझ लीजिये,
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है |
बिंध जाये सो मोती है, रह जाये सो दाना है |
-जिगर मुरादाबादी