Tuesday, August 18, 2015

आए कुछ अब्र, कुछ शराब आए,
इसके बाद आए, जो अज़ाब आए ।

बाम-ए-मीना से माहताब उतरे
दस्त-ए-साक़ी में आफ़ताब आए ।

हर रग़-ए-खूँ में फ़िर चरागाँ हो,
सामने फ़िर वो बेनक़ाब आये |

उम्र के हर वरक़ पे दिल को नज़र
तेरी मेहर-ओ-वफ़ा के बाब आए ।

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बेहिसाब आए ।

ना गई तेरे ग़म की सरदारी
दिल में यूँ रोज़ इंक़िलाब आए ।

जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम,
जब भी हम खानामाँखराब आए ।

इस तरह अपनी ख़ामोशी गूँजी
ग़ोया हर सिम्त से जवाब आए ।

'फैज़' थी राह सर-बसर मंज़िल
हम जहाँ पहुँचे, कामयाब आए ।

- फैज़ अहमद 'फैज़'
बिछड़ना उसकी ख्वाहिश थी ना मेरी आरज़ू लेकिन,ज़रा सी ज़िद ने इस आँगन का बंटवारा कराया है ! - मुन्नवर राणा