दिल्ली से दिलवालों ने कुछ बातें फिर से फेंकी हैं
लाल किले पर चढ़कर किसने गाँव की हालत देखी है |
बिन बेले ही खाने-वाले रोटी से खिलवाड़ ना कर,
अँगारों पे हाथ जलाकर मैंने रोटी सेंकी है |
कश्ती बहक रही है तो क्यों हाय-तौबा करते हो,
बोझ समझकर कश्ती से पतवार तुम्ही ने फेंकी है |
कैक्टस के बँगले के भीतर जाने चीख रहा था कौन,
सुबह सड़क पर पड़ी हुई तुलसी लोगों ने देखी है |
जंगल की हत्या में शामिल कोई उसका अपना है,
लगी कुल्हाड़ी के भीतर एक काठ सभी ने देखी है |
दफ्तर जब भी जाऊँ बिटिया पाँव पकड़ कर रोती है,
मैंने इतनी बेबस उसकी आँख कभी ना देखी है |
जलकर और पिघलकर खुद जो घर को रोशन करती है,
ऐसी हर शम्मा में मैंने माँ की सूरत देखी है |
मेरे गाँव की माटी मुझसे बहुत मुहब्बत करती है
मैंने बस के पीछे आती धूल गाँव की देखी है |
-नीरज श्रीवास्तव
Thursday, August 16, 2007
Thursday, August 2, 2007
मेरी महाभारत
अब
युद्ध होगा
एक नहीं
प्रत्येक के
विरुद्ध होगा
फिर चढेगी
प्रत्यंचा गांडीव पर
फिर कहीँ कोई
सुयोधन क्रुद्ध होगा
ना जाने कैसे
समझाऊँ ह्रदय को
कैसे यह
बताऊं उसको, कि
गांधारी का प्रेम
आज भी मेरे लिए
अनिरुद्ध होगा
हाँ आज मैं
अर्जुन हूँ
अपनों से लडूँगा
ना आज कोई कृष्ण
ना भीष्म, द्रोण
ना ही युधिष्ठिर का चरित्र
अशुद्ध होगा
होगी तो बस
आज वो महाभारत
जिसमे तुम्हारी जीत
और अपनी हार देखकर
मेरा ह्रदय फिर एक बार
तृप्त होगा
मुग्ध होगा...
- गौरव चौहान
युद्ध होगा
एक नहीं
प्रत्येक के
विरुद्ध होगा
फिर चढेगी
प्रत्यंचा गांडीव पर
फिर कहीँ कोई
सुयोधन क्रुद्ध होगा
ना जाने कैसे
समझाऊँ ह्रदय को
कैसे यह
बताऊं उसको, कि
गांधारी का प्रेम
आज भी मेरे लिए
अनिरुद्ध होगा
हाँ आज मैं
अर्जुन हूँ
अपनों से लडूँगा
ना आज कोई कृष्ण
ना भीष्म, द्रोण
ना ही युधिष्ठिर का चरित्र
अशुद्ध होगा
होगी तो बस
आज वो महाभारत
जिसमे तुम्हारी जीत
और अपनी हार देखकर
मेरा ह्रदय फिर एक बार
तृप्त होगा
मुग्ध होगा...
- गौरव चौहान
Subscribe to:
Posts (Atom)