Monday, November 12, 2007

नयी सुबह पे नज़र है,
मगर आह! यह भी डर है,
यह सहर भी रफ्ता रफ्ता,
कहीं शाम तक पहुंचे |
-शकील बदायूँनी

Saturday, November 10, 2007

वस्ल में रंग उड़ गया मेरा,
क्या जुदाई को मुँह दिखाऊँगा |
-मीर तकी 'मीर'

Saturday, September 29, 2007

प्यार किसी को करना लेकिन
कहकर उसे बताना क्या |
अपने को अर्पण करना पर
औरों को अपनाना क्या |

गुण का ग्राहक बनना लेकिन
गाकर उसे सुनाना क्या |
मन के कल्पित भावों से
औरों को भ्रम में लाना क्या |

ले लेना सुगन्ध सुमनों की
तोड़ उन्हें मुरझाना क्या |
प्रेम हार पहनाना लेकिन
प्रेम-पाश फैलाना क्या |

त्याग अंक में पले प्रेम-शिशु
उनमें स्वार्थ बताना क्या |
देकर ह्रदय ह्रदय पाने की
आशा व्यर्थ लगाना क्या|
-डाक्टर हरिवंश राय बच्चन
लो दिन बीता, लो रात गई,
सूरज ढलकर पच्छिम पहुँचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या-सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था,
दिन में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।

धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फैले,
सौ रजनी-सी वह रजनी थी
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।

चिड़ियाँ चहकीं, कलियाँ महकी,
पूरब से फिर सूरज निकला,
जैसे होती थी सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रातः कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई |
-हरिवंश राय बच्चन

Thursday, August 16, 2007

दिल्ली से दिलवालों ने कुछ बातें फिर से फेंकी हैं
लाल किले पर चढ़कर किसने गाँव की हालत देखी है |

बिन बेले ही खाने-वाले रोटी से खिलवाड़ ना कर,
अँगारों पे हाथ जलाकर मैंने रोटी सेंकी है |

कश्ती बहक रही है तो क्यों हाय-तौबा करते हो,
बोझ समझकर कश्ती से पतवार तुम्ही ने फेंकी है |

कैक्टस के बँगले के भीतर जाने चीख रहा था कौन,
सुबह सड़क पर पड़ी हुई तुलसी लोगों ने देखी है |

जंगल की हत्या में शामिल कोई उसका अपना है,
लगी कुल्हाड़ी के भीतर एक काठ सभी ने देखी है |

दफ्तर जब भी जाऊँ बिटिया पाँव पकड़ कर रोती है,
मैंने इतनी बेबस उसकी आँख कभी ना देखी है |

जलकर और पिघलकर खुद जो घर को रोशन करती है,
ऐसी हर शम्मा में मैंने माँ की सूरत देखी है |

मेरे गाँव की माटी मुझसे बहुत मुहब्बत करती है
मैंने बस के पीछे आती धूल गाँव की देखी है |
-नीरज श्रीवास्तव

Thursday, August 2, 2007

मेरी महाभारत

अब
युद्ध होगा
एक नहीं
प्रत्येक के
विरुद्ध होगा

फिर चढेगी
प्रत्यंचा गांडीव पर
फिर कहीँ कोई
सुयोधन क्रुद्ध होगा

ना जाने कैसे
समझाऊँ ह्रदय को
कैसे यह
बताऊं उसको, कि
गांधारी का प्रेम
आज भी मेरे लिए
अनिरुद्ध होगा

हाँ आज मैं
अर्जुन हूँ
अपनों से लडूँगा
ना आज कोई कृष्ण
ना भीष्म, द्रोण
ना ही युधिष्ठिर का चरित्र
अशुद्ध होगा

होगी तो बस
आज वो महाभारत
जिसमे तुम्हारी जीत
और अपनी हार देखकर
मेरा ह्रदय फिर एक बार
तृप्त होगा
मुग्ध होगा...
- गौरव चौहान
कहते हैं
टूटते तारे को देख कर,
जो भी माँगो
मिल जाता है ।
मुझे इंतज़ार है
सूरज के टूटने का
क्योंकि मेरी मांगे
कुछ ज्यादा ही बड़ी हैं ।
- गौरव चौहान

Tuesday, July 31, 2007

तुम अगर नही आई गीत गा न पाऊँगा
साँस साथ छोडेगी, सुर सजा न पाऊँगा
तान भावना की है शब्द-शब्द दर्पण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है |

तुम बिना हथेली की हर लकीर प्यासी है
तीर पार कान्हा से दूर राधिका-सी है
रात की उदासी को आँसुओ ने झेला है
कुछ गलत ना कर बैठें मन बहुत अकेला है
औषधि चली आओ चोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है |


तुम अलग हुई मुझसे साँस की ख़ताओं से
भूख की दलीलों से वक्त की सज़ाओं से
दूरियों को मालूम है दर्द कैसे सहना है
आँख लाख चाहे पर होंठ से न कहना है
कंचनी कसौटी को खोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है |

-डाक्टर कुमार विश्वास
{काव्य संग्रह "कोई दीवाना कहता है" (२००७) में प्रकाशित}

लायी हयात आये कज़ा ले चली चले
ना अपनी ख़ुशी आये ना अपनी ख़ुशी चले |

दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो यूं ही जब तक चली चले |

कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बदकिमार

जो चाल हम चले वो निहायत बुरी चले |
-"ज़ौक" इब्राहिम
{
हयात = जीवन ; कज़ा = मौत ; राहे-फ़ना = नश्वर जीवन की राह ; बदकिमार = बेवकूफ़}

मेरी कुण्ठा

मेरी कुंठा
रेशम के कीड़ों सी
ताने-बाने बुनती,
तड़प-तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से
औ' वीणा से कहती-सुनती,
गर्भवती है
मेरी कुंठा – कुँवारी कुंती!

बाहर आने दूँ
तो लोक-लाज-मर्यादा
भीतर रहने दूँ
तो घुटन, सहन से ज़्यादा,
मेरा यह व्यक्तित्व
सिमटने पर आमादा ।
-दुष्यंत कुमार

पाँवों से सिर तक जैसे एक जुनून
बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून
कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पाँव
जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव
टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस
पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस
कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़
जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़
गट्टों-सी जंघाएँ, निष्प्राण मलीन
कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण
छाती के नाम महज़ हड्डी दस-बीस
जिस पर गिन चुन कर बाल खड़े इक्कीस
पुट्ठे हों जैसे सूख गए अमरूद
चुकता करते-करते जीवन का सूद
बाँहें ढीली ढाली ज्यों टूटी डाल
अँगुलियाँ जैसे सूखी हुई पुआल
छोटी सी गरदन, रंग बेहद बदरंग
हर वक़्त पसीने की बदबू का संग
पिचकी अमियों से गाल, लटे से कान
आँखें जैसे तरकश के खुट्टल बान
माथे पर चिन्ताओं का एक समूह
भौंहों पर बैठी हरदम यम की रूह
तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल
विद्युत परिचालित मखनाती सी चाल
बैठे तो फिर घण्टों जाते हैं बीत
सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत

कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यन्त कुमार ।
-दुष्यंत कुमार

ख़ुदा नहीं, न सही, आदमी का ख़्वाब सही ,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये |

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये |

-दुष्यंत कुमार

एक आर्शीवाद

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊँचाइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
-दुष्यंत कुमार

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूँगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुःख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
-दुष्यंत कुमार

Monday, July 30, 2007


सुदूर कामना,
सारी ऊर्जाएँ,
सारी क्षमताएँ खोने पर,
यानी कि
बहुत बहुत
बहुत बूढ़ा होने पर,
एक दिन चाहूँगा
कि तू मर जाए।
(इसलिए नहीं बताया कि तू डर जाए।)

हाँ उस दिन
अपने हाथों से
तेरा संस्कार करुंगा,
उसके ठीक एक महीने बाद
मैं मरूँगा
उस दिन मैं
तुझ मरी हुई का
सौंदर्य देखूँगा,
तेरे स्थाई मौन से सुनूँगा
क़रीब,
और क़रीब जाते हुए
पहले मस्तक
और अंतिम तौर पर
चरण चूमूँगा
अपनी बुढ़िया की
झुर्रियों के साथ-साथ
उसकी एक-एक ख़ूबी गिनूँगा
उँगलियों से।
झुर्रियों से ज़्यादा
खूबियाँ होंगी
और फिर गिनते-गिनते
गिनते-गिनते
उँगलियाँ काँपने लगेंगी
अँगूठा थक जाएगा।
फिर मन-मन में गिनूँगा
पूरे महीने गिनता रहूँगा
बहुत कम सोउँगा,
और छिपकर नहीं
अपने बेटे-बेटी
पोते-पोतियों के सामने
आँसुओं से रोऊंगा।
एक महीना
हालाँकि ज़्यादा है
पर मरना चाहूँगा
एक महीने ही बाद,
और उस दौरान
ताज़ा करूँगा
तेरी एक-एक याद।
आस्तिक हो जाऊँगा
एक महीने के लिए
बस तेरा नाम जपूँगा
और ढोऊँगा
फालतू जीवन का साक्षात बोझ
हर पल तीसों रोज़।
इन तीस दिनों में
काग़ज़ नहीं छूउँगा
क़लम नहीं छूउँगा
अख़बार नहीं पढ़ूँगा
संगीत नहीं सुनूँगा
बस अपने भीतर
तुझी को गुंजाऊँगा
और तीसवीं रात के
गहन सन्नाटे में
खटाक से मर जाऊंगा
-अशोक चक्रधर

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

देव! मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।
-अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

इक लफ़्ज़-ए-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है,
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़, फैले तो ज़माना है |

ये किस का तसव्वुर है ? ये किस का फ़साना है ?
जो अश्क है आँखों में, तस्बीह का दाना है |

हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है,
रोने को नहीं कोई, हँसने को ज़माना है |

वो और वफ़ा-दुश्मन, मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है, आँखों का बहाना है |

क्या हुस्न ने समझा है! क्या इश्क़ ने जाना है !
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है |

वो हुस्न-ओ-जमाल उनका, ये इश्क़-ओ-शबाब अपना,
जीने की तमन्ना है, मरने का ज़माना है |

या वो थे ख़फ़ा हम से, या हम थे ख़फ़ा उन से
कल उन का ज़माना था, आज अपना ज़माना है |

अश्कों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में,
मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है |

आँखों में नमी सी है, चुप-चुप से वो बैठे हैं,
नाज़ुक सी निगाहों में, नाज़ुक सा फ़साना है |

है इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा ! हाँ !इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा,
आज एक सितमगर को हँस-हँस के रुलाना है |

ये इश्क़ नहीं आसाँ, बस इतना समझ लीजिये,
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है |

आँसू तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन,
बिंध जाये सो मोती है, रह जाये सो दाना है |
-जिगर मुरादाबादी

Friday, July 27, 2007

कंधे पर लदे बेताल ने विक्रमादित्य से कहा,
"राजन, मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो
अन्यथा तुम्हारा सर धड़ से अलग हो जायेगा,
तुम्हारा अस्तित्व हमेशा के लिये खो जायेगा |

आज मैंने अख़बार में पढ़ा,
एक महिला, जिसका पति देवता होकर आदमी की तरह जिया
इसी अपराध पर किसी ने उसे सम्मान नहीं दिया,
गले में सदाचार का तावीज़ लटकता रहा,
इसीलिये मास्टर बन कर दर-ब-दर भटकता रहा
हर साल करता रहा, गायत्री का जाप,
हर साल बनता रहा, लड़कियों का बाप,
इस साल बजरंग का पांव छुआ,
तो उसकी पत्नी को पत्थर का टुकड़ा हुआ |
इसका क्या कारण है?"

विक्रमादित्य चौंका, बीड़ी का ज़ोरदार कश लिया,
और उसके प्रश्न का उत्तर यूँ दिया :
"सुन बेताल! उस औरत के पूर्वजन्म का हाल |
वो औरत एक शहीद की माँ थी,
देशभक्ति की परंपरा उसके यहाँ थी,
जीवन भर सैनिकों की वर्दियाँ सीती रही,
बेटे को शहीद देखने की तमन्ना में जीती रही,
ख़ून को देती रही पसीने का कर्ज़,
बढ़ता रहा देशभक्ति का मर्ज़ |

मेघदूत युद्ध का संदेश लाया,
संगीनों ने आषाढ़ गाया,
बेटा सरहदों पर सर बो गया,
इतिहास की ग़ुमनाम वादियों में
हमेशा के लिये खो गया
माँ अपने सौभाग्य पर मुस्कराती रही,
बेटे की तस्वीर को फ़ौजी लिबास पहनाती रही |
रोज़ पढ़ती रही अख़बार,
ढूंढती रही, बेटे के शहीद होने का समाचार
नेताओं की आदमकद तस्वीरें हँसती रहीं |

इतिहास में शासक को जगह मिलती है,
शहीदों को नहीं |
जो इतिहास के पन्ने सींते हैं,
वो इतिहास पर नहीं,
सुई की नोंक पर जीते हैं |
भूगोल होता है जिनके रक्त से रंगीन,
उनके बच्चों को मयस्सर नहीं दो ग़ज ज़मीन |
शहादत कहाँ तक अपना लहू पीती रही?
केवल शहीद को जन्म देने के लिये जीती रही?

स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया उनका नाम,
जो बेचते रहे शहीदों का ख़ून,
बढ़ाते रहे चीज़ों के दाम |
इत्र में नहाते रहे,
शहीदों के ख़ून की खुशबू छुपाते रहे |

तो सुन बेताल, आगे का हाल,
शहीद स्मारक के लिये किये गये चंदे,
मगर आसमान से उतरे हुये ईश्वर के ये बंदे,
चंदे की थैलियां भी ले गये,
शिलान्यास का खाली पत्थर दे गये,
माँ जिसे छाती से लगाकर सो गयी,
खुद शहीद का स्मारक हो गयी |
ममता ने उसी का बदला लिया है,
सीमा पर लड़ने के लिये शहीद नहीं,
शिलान्यास का पत्थर दिया है !!!
-अज्ञात कवि

Tuesday, July 24, 2007

रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा
मैंने माजी से कई खुश्क सी शाखें काटीं
तुमने भी गुजरे हुये लम्हों के पत्ते तोड़े
मैंने जेबों से निकालीं सभी सूखीं नज़्में
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुये खत खोलें
अपनी इन आंखों से मैंने कई मांजे तोड़े
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी
तुमने पलकों पे नामी सूख गयी थी, सो गिरा दी |

रात भर जो भी मिला उगते बदन पर हमको
काट के दाल दिया जलाते अलावों मसं उसे
रात भर फून्कों से हर लोऊ को जगाये रखा
और दो जिस्मों के ईंधन को जलाए रखा
रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने |
-गुलज़ार

आओ फिर नज़्म कहें
फिर किसी दर्द को सहला के सुजा लें आँखें

फिर किसी दुखती रग से छुआ दे नश्तर

या किसी भूली हुई राह पे मुड़कर
एक बार
नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज़ ही दे लें
फिर कोई नज़्म कहें |

-गुलज़ार

वो जो शायर था चुप सा रहता था
बहकी-बहकी सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था
गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!
जमा करता था चाँद के साए
और गीली सी नूर की बूँदें
रूखे-रूखे से रात के पत्ते
ओक में भर के खरखराता था
वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हाँ वही, वो अजीब सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोड़ी चूमा करता था

चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है |
-गुलज़ार

Monday, July 23, 2007

किसी मौसम का झोंका था
जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है
गए सावन में ये दीवारें यूँ सीली नहीं थी
जाने इस दफा क्यों इनमें सीलन गयी है
दरारें पड़ गई हैं और सीलन इस तरह बैठती है
जैसे खुश्क रुख्सारों पे गीले आँसू चलते हैं |
-गुलज़ार

Wednesday, July 18, 2007

आना तुम मेरे घर

आना तुम मेरे घर
अधरों पर हास लिये |
तन-मन की धरती पर
झर-झर-झर-झर-झरना,
साँसों मे प्रश्नों का आकुल आकाश लिये |

तुमको पथ में कुछ मर्यादाएँ रोकेंगी
जानी-अनजानी सौ बाधाएँ रोकेंगी
लेकिन तुम चन्दन सी,
सुरभित कस्तूरी सी,
पावस की रिमझिम सी,
मादक मजबूरी सी,
सारी बाधाएँ तज,
बल खाती नदिया बन
मेरे तट आना
एक भीगा उल्लास लिये...
आना तुम मेरे घर,
अधरों पर हास लिये |

जब तुम आऒगी तो घर आँगन नाचेगा
अनुबन्धित तन होगा लेकिन मन नाचेगा
माँ के आशीषों-सी,
भाभी की बिंदिया-सी
बापू के चरणों-सी,
बहना की निंदिया-सी
कोमल-कोमल, श्यामल-श्यामल,अरूणिम-अरुणिम
पायल की ध्वनियों में
गुंजित मधुमास लिये
आना तुम मेरे घर
अधरों पर हास लिये |
- डॉक्टर कुमार विश्वास

Sunday, July 8, 2007

यह जो हर मोड़ पे शतरंज बिछी है इसको,
पहले इन जीतने वालों की सियासत से निकाल |
याद इतना तो रहे दोस्त की हम दोस्त भी थे,
अपना खंजर मेरे सीने से मुहब्बत से निकाल |
-'तारिक़'
यहाँ मेरा कोई अपना नहीं है,
चलो अच्छा है कुछ खतरा नहीं है |
बिछड़ कर मुझसे 'तारिक़' जी तो लोगे,
मगर यह फैसला अच्छा नहीं है |
-'तारिक़'
रंग दुनिया ने दिखाया है निराला, देखूँ,
है अँधेरे में उजाला, तो उजाला देखूँ |
आईना रख दे मेरे हाथ में,आख़िर मैं भी,
कैसा लगता है तेरा चाहने वाला देखूँ |
जिसके आँगन से खुले थे मेरे सारे रस्ते,
उस हवेली पे भला कैसे मैं ताला देखूँ |
- डॉक्टर कुमार विश्वास
पनाहों में जो आया हो, तो उस पर वार क्या करना ?
जो दिल हारा हुआ हो, उस पे फिर अधिकार क्या करना ?
मुहब्बत का मज़ा तो डूबने की कशमकश में हैं,
जो हो मालूम गहराई, तो दरिया पार क्या करना ?
- डॉक्टर कुमार विश्वास
एक सूरज है यहाँ दफ्न बड़ी मुद्दत से,
मुस्कुराते हैं अँधेरे इधर आते-जाते |
एक आँसू की भी खैरात ना पाई मुझसे,
थक गए गम मेरी दहलीज़ पे आते-जाते |
-Anonymous

Friday, June 1, 2007

जिसे ले गई हैं अभी हवा,
वह वरक़ था दिल की किताब का |
कहीं आँसुओं से मिटा हुआ,
कहीं आँसुओं से लिखा हुआ ||
-बशीर बद्र
अमावस की काली रातों में दिल का दरवाजा खुलता है,
जब दर्द की प्याली रातों में गम आंसू के संग होते हैं,
जब पिछवाड़े के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,
जब घड़ियाँ टिक-टिक चलती हैं,सब सोते हैं, हम रोते हैं,
जब बार-बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं,
जब ऊँच-नीच समझाने में माथे की नस दुःख जाती है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।


जब पोथे खाली होते है, जब हर सवाली होते हैं,
जब गज़लें रास नही आती, अफ़साने गाली होते हैं,
जब बासी फीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जता है,
जब सूरज का लश्कर चाहत से गलियों में देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है,
जब कालेज से घर लाने वाली पहली बस छुट जाती है,
जब बेमन से खाना खाने पर माँ गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मन करने पर भी पारो पढ़ने आ जाती है,
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।


जब कमरे में सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण में आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,
जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो दिन भर, कुछ सपनों का भी सम्मान करो,
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते है,हम जाते हैं,घबराते हैं,
जब साड़ी पहने एक लड़की का फोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है,
जब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।


दीदी कहती हैं उस पगली लडकी की कुछ औकात नहीं,
उसके दिल में भैया तेरे जैसे प्यारे जज़्बात नहीं,
वो पगली लड़की एक दिन मेरे लिए भूखी रहती है,
चुप चुप सारे व्रत करती है, मगर मुझसे कुछ ना कहती है,
जो पगली लडकी कहती है, हाँ प्यार तुझी से करती हूँ,
लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत, अम्मा-बाबा से डरती हूँ,
उस पगली लड़की पर अपना कुछ अधिकार नहीं बाबा,
ये कथा-कहानी-किस्से हैं, कुछ भी सार नहीं बाबा,
बस उस पगली लडकी के संग जीना फुलवारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है |||

- डॉक्टर कुमार विश्वास