Thursday, August 16, 2007

दिल्ली से दिलवालों ने कुछ बातें फिर से फेंकी हैं
लाल किले पर चढ़कर किसने गाँव की हालत देखी है |

बिन बेले ही खाने-वाले रोटी से खिलवाड़ ना कर,
अँगारों पे हाथ जलाकर मैंने रोटी सेंकी है |

कश्ती बहक रही है तो क्यों हाय-तौबा करते हो,
बोझ समझकर कश्ती से पतवार तुम्ही ने फेंकी है |

कैक्टस के बँगले के भीतर जाने चीख रहा था कौन,
सुबह सड़क पर पड़ी हुई तुलसी लोगों ने देखी है |

जंगल की हत्या में शामिल कोई उसका अपना है,
लगी कुल्हाड़ी के भीतर एक काठ सभी ने देखी है |

दफ्तर जब भी जाऊँ बिटिया पाँव पकड़ कर रोती है,
मैंने इतनी बेबस उसकी आँख कभी ना देखी है |

जलकर और पिघलकर खुद जो घर को रोशन करती है,
ऐसी हर शम्मा में मैंने माँ की सूरत देखी है |

मेरे गाँव की माटी मुझसे बहुत मुहब्बत करती है
मैंने बस के पीछे आती धूल गाँव की देखी है |
-नीरज श्रीवास्तव

No comments: