Monday, July 30, 2007


सुदूर कामना,
सारी ऊर्जाएँ,
सारी क्षमताएँ खोने पर,
यानी कि
बहुत बहुत
बहुत बूढ़ा होने पर,
एक दिन चाहूँगा
कि तू मर जाए।
(इसलिए नहीं बताया कि तू डर जाए।)

हाँ उस दिन
अपने हाथों से
तेरा संस्कार करुंगा,
उसके ठीक एक महीने बाद
मैं मरूँगा
उस दिन मैं
तुझ मरी हुई का
सौंदर्य देखूँगा,
तेरे स्थाई मौन से सुनूँगा
क़रीब,
और क़रीब जाते हुए
पहले मस्तक
और अंतिम तौर पर
चरण चूमूँगा
अपनी बुढ़िया की
झुर्रियों के साथ-साथ
उसकी एक-एक ख़ूबी गिनूँगा
उँगलियों से।
झुर्रियों से ज़्यादा
खूबियाँ होंगी
और फिर गिनते-गिनते
गिनते-गिनते
उँगलियाँ काँपने लगेंगी
अँगूठा थक जाएगा।
फिर मन-मन में गिनूँगा
पूरे महीने गिनता रहूँगा
बहुत कम सोउँगा,
और छिपकर नहीं
अपने बेटे-बेटी
पोते-पोतियों के सामने
आँसुओं से रोऊंगा।
एक महीना
हालाँकि ज़्यादा है
पर मरना चाहूँगा
एक महीने ही बाद,
और उस दौरान
ताज़ा करूँगा
तेरी एक-एक याद।
आस्तिक हो जाऊँगा
एक महीने के लिए
बस तेरा नाम जपूँगा
और ढोऊँगा
फालतू जीवन का साक्षात बोझ
हर पल तीसों रोज़।
इन तीस दिनों में
काग़ज़ नहीं छूउँगा
क़लम नहीं छूउँगा
अख़बार नहीं पढ़ूँगा
संगीत नहीं सुनूँगा
बस अपने भीतर
तुझी को गुंजाऊँगा
और तीसवीं रात के
गहन सन्नाटे में
खटाक से मर जाऊंगा
-अशोक चक्रधर

2 comments:

Neha said...

Too Beautiful....
Pata nahiin kahaan kahaan se mil jaati hain aisi kavitaayein tumko...
Too Beautiful I must say...

Vaibhav Bakhshi said...

Heheheheh...
It was one of the most touching piece of poetry I ever came across. Kahaan se mil jati hai, yeh to bhagwaan jane. Magar itni achchee cheez ko blog mein include na karna namumkin tha.