Friday, May 25, 2007

हो जाए ना पथ में रात कहीँ !

हो जाए पथ में रात कहीं,

मंज़िल भी तो है दूर नहीं -
यह सोच थका दिन का पंथी भी
जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे -
यह ध्यान परों में चिड़ियों के
भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल? -
यह प्रश्न शिथिल करता पद को,
भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

-हरिवंश राय बच्चन

संकलन : निशा-निमंत्रण (प्रकाशन वर्ष : 1938)

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