बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, बुझे हुए चाँद,
रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा -
- मेरा यह जिस्म
कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था
तुम्हारे आश्लेष में
आज वह जूड़े से गिरे हुए बेले-सा
टूटा है, म्लान है
दुगना सुनसान है
बीते हुए उत्सव-सा, उठे हुए मेले-सा-
मेरा यह जिस्म -
टूटे खंडहरों के उजाड़ अन्तःपुर में
छूटा हुआ एक साबुत मणिजड़ित दर्पण-सा -
आधी रात दंश भरा बाहुहीन
प्यासा सर्पीला कसाव एक
जिसे जकड़ लेता है
अपनी गुंजलक में:
अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है, और याद है
खाली दर्पण में धुँधला-सा एक प्रतिबिंब
मुड़-मुड लहराता हुआ
निज को दोहराता हुआ!
-धर्मवीर भारती
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