क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
अगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी की सूनी घडियों को,
किन-किन से आबाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
याद सुखों की आँसू लाती,
दुःख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूं जब अपने से,
अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
दोनों करके पछताता हूं,
सोच नहीं, पर मैं पाता हूं,
सुधियों के बंधन से कैसे
अपने को आज़ाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
-हरिवंश राय बच्चन
Thursday, May 24, 2007
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